अत्यधिक क्रोध मनुष्य जीवन को नरक बनाती है - - आचार्य नंदकुमार शर्मा
अत्यधिक क्रोध मनुष्य जीवन को नरक बनाती है - - आचार्य नंदकुमार शर्मा
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सुरेन्द्र जैन/धरसीवां
समीपस्थ स्थान ग्राम निनवा मे आयोजित भागवत कथा के प्रथम दिवस मे शुक्रवार को छत्तीसगढ़ अंचल के सुप्रसिद्ध भागवत कथा वाचक आचार्य पं नंदकुमार जी शर्मा, निनवा वाले ने कहा कि इस कलिकाल में सत्य बोलना ही सबसे बड़ा तप है। सत्य परेशान हो सकता है पर पराजित नहीं।उन्होने कहा कि भागवत कथा व्यक्ति को सत्य का अनुगामी बनाती है। मानव को सतमार्गी बनाती है, क्योकि श्रीमद्भागवत का प्रारंभ श्री वेद व्यास जी ने किया है और भागवत कथा प्रारंभ मे ही भगवान के सत, चित और आनंद स्वरूप परमात्मा की स्तुति की गई है और श्रीमद्भागवत की विश्राम की बेला पर भी सत्य की ही वंदना की गई।श्रीमद्भागवत जी स्वयं सत्य स्वरूप है। श्री भागवत जी को अपने जीवन में उतारने वाला व्यक्ति सतमार्गी हो जाता है। आचार्य जी ने बताया की श्रीमद्भागवत के मुख्य तीन वक्ता और तीन श्रोता हैं। इनमें प्रथम -नारद -व्यास जो परोपकार प्रधान हैं, दूसरे सूत -शौनक जो यज्ञ प्रधान है , और तीसरे सुकदेव -परीक्षित जो कि कथा प्रधान हैं। कथा व्यास ने बताया कि कथा प्रधान श्रीमद भागवत को ही हम सब श्रवण कर रहे हैं। आचार्य जी ने कहा कि भगवान तो भक्तों अधीन हैं। वह कभी किसी का बुरा नहीं करते जो अपना हर कार्य प्रभु पर समर्पित हो करता है। प्रभु उसकी रक्षा स्वयं करते हैं।मन वाणी और कर्म के द्वारा हमेशा सत्य का आश्रय लेने वाला व्यक्ति प्रभु का सच्चा भक्त होता है। ऐसा भक्त सुख और दुख दोनों ही स्थिति मे परमात्मा को एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता। वेद व्यास जी ने किसी भी संप्रदाय जात-पात का भेदभाव न रखकर हर मानव के लिए भागवत महापुराण का निर्माण किया है। व्यक्ति को अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है तो भगवान की शरण में जाना होगा क्योंकि संसार की संपूर्ण समस्या का निदान यदि कहीं है तो वह केवल भागवत में है। जीव को अगर मोक्ष पाना है तो कथा श्रवण सर्वोपरि साधन है। उन्होने कहा कि पापी से पापी व्यक्ति भी भागवत कथा के श्रवण मात्र से मोक्ष को प्राप्त कर लेता है..आचार्य जी ने बताया कि राजा परीक्षित ने क्रोध मे आकर एक ऋषि के गले मे मरा हुआ सर्प डाल दिया जिसके कारण ऋषि ने श्राप दिया कि ठीक सातवें दिन तक्षक नाग के काटने से राजा की मृत्यु होगी।
उन्होने कहा मनुष्य जीवन मे क्रोध बहुत भयंकर आग की तरह है जिसमे स्वयं के साथ साथ दूसरो को जलना पड़ता है. उन्होने कहा कि क्रोध एवं अहंकार एक दूसरे के पूरक हैं।क्रोधी मनुष्य तप्त लौह पिंड के समान अंदर ही अंदर दहकता एवं जलता रहता है। उसकी मानसिक शान्ति नष्ट हो जाती है। विवेकपूर्ण कार्य करने की स्थिति समाप्त हो जाती है। क्रोध के कारण कोई व्यक्ति दूसरे का उतना अहित नहीं कर पाता जितना अहित वह स्वयं अपना कर लेता है। जो व्यक्ति अत्यधिक क्रोध करने वाला होता है उसे कभी भी शांति नहीं मिल सकती. वह अपने जीवन में हमेशा परेशान ही रहता है. गुस्सा करना कभी भी हमारे लिए बेहतर नहीं होता. इसका अंजाम हमेशा ही बुरा होता है. क्रोध करने से कोई भी बात बनती नहीं है बल्कि बिगड़ जाती है. क्रोध करने वाले व्यक्ति का गुस्सा शांत हो जाता है तो उसे पछताना पड़ता है. अहंकार से प्रेरित होकर व्यक्ति अपने को सब कुछ समझने लगता है। वह यह समझता है कि उसके पास इतनी शक्ति है कि वह दूसरों को नष्ट कर सकता है। उसमें अपने आपको बड़ा मानने तथा दूसरों को अपने से छोटा समझने की चेतना विकसित होती है। आगे आचार्य जी हिरण्याक्ष वध की कथा बतायी।