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नग्न मूर्ति का खड़ग से किया जाता है वध

 यहां की दशहरा है अनोखी


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नग्न मूर्ति का खड़ग से किया जाता है वध

जयलाल प्रजापति, सिहावा-नगरी

वक्त जरूर बदला लेकिन धमतरी वनांचल के सोनामगर गांव में दशहरा त्यौहार मनाने के तरीके नही बदले.इस वनवासी गांव के अनोखे दस्तूर को देखने हर साल दूर दूर से आए लोगो का हुजूम उमड़ पडता है.बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व यहां विजयादशमी के दिन नही बल्कि एकादशी को धूमधाम से मनाया जाता है.इस त्यौहार की एक खासियत यह भी है कि इस गांव मे बुराई के प्रतीक रुप में रावन का पुतला नही बल्कि सहस्त्रबाहु रावन की नग्न मुर्ति होती है.पुजारी के व्दारा वध किए जाने के बाद श्रृद्धालु नोचनोच कर मुर्ति की पवित्र मिटटी को अपने घर ले जाते है और एक दूसरे को तिलक लगाकर जीत की खुशियां मनाते है.


पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है परम्परा



धमतरी से करीब 70 किमी दूर सिहावा के सोनामगर गांव में दशहरा देखने सुबह से ही लोगों को जमावड़ा लगना शुरू हो जाता है क्योकि लोग गांव की उस अनोखी परम्परा का गवाह बनना चाहते है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रही है और आज भी कायम है.एकादशी के दिन मनाए जाने वाले इस गाॅव के दशहरे मे बुराई के रुप मे सहस्त्रबाहु रावन का वध होता है जिसकी नग्नमुर्ति को मन्दिर का पुजारी मंत्रोचार के बाद खडग से छत विछत कर देता है.बाद इसके मुर्ति को नोचने लोगो को हुजूम उमड़ पड़ता है और पवित्र मिटटी के लिऐ पाने होड़ मच जाती है.विधिविधान से किए जाने वाले इस धार्मिक उत्सव के बारे मे मान्यता है कि युगों युगों पहले वासना से ग्रसित से इस असुर का वध माता चण्डिका ने अपने खडग से किया था.तब से ये परम्परा चली आ रही है और इलाके के लोग आज भी आस्था की इस डोर को थामे चल रहे है.


प्रत्येक घरों से मिट्टी इक्कठा कर बनाई जाती है रावण की नग्न मूर्ति



वैसे पुरातन काल से ही इलाके की पहचान बन चुके इस दशहरे को देखने लोग दूर दूर से आते है.पहले गांव के बाहर शीतला माता को साधने के बाद चाॅदमारी होती है फिर पूजा अराधना का दौर सांझ ढलने के बाद ही होता है.खास बात ये है कि मुर्ति बनाने के लिऐ घर घर घर से लाए मिटटी को गढ़ने की शुरूवात अलसुबह से ही हो जाती है जिसे गांव का ही कुम्हार पीढ़ी दर पीढ़ी बनाते आ रहा है और इसमे सभी धर्म सम्प्रदाय के लोग हाथ से हाथ मिलाकर सहयोग करते है.


महिलाओं के शामिल होने पर है मनाही



सदियो परम्परा चली आ रही है और इलाके के लोग आज भी आस्था की इस डोर को थामे चल रहे है.कुछ अलग तरह से मनाऐ जाने वाले दशहरे के इस कार्यक्रम मे महिलाए शामिल नही होती और दिगर जगहो से अलग यहां बजाए सोनपत्ती के रावनवध के मिटटी को ही माथे पर तिलक लगाकर जीत की खुशी मनाई जाती है.


दूर दराज से देखने आते है लोग



सदियो से इलाके और सोनमगर गांव मे भले ही एक दिन के लिए मेले जैसा माहौल हो पर कि एकादशी के दिन अनोखे तरीके से दशहरा मनाने को सैलानी देखने हर साल आते है और ये दूर दराज तक मशहूर हो गया है.



बहरहाल सप्तऋषियों की कर्मभूमि मे मौजूद सिहावा का यह सोनामगर गाॅव दशहरे के इतिहास को अपने तरीके से संजोए सदियो से चला आ रहा है और ये धार्मिक विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ रही है जिसे देखने और समझने लोगो को इन्तजार रहता है हर साल एकादशी के दिन का।



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