आत्मा क्या है और मन क्या है..?
आत्मा क्या है और मन क्या है..?
अपने दिन की बातचीत में मनुष्य प्रतिदिन न जाने कितनी बार “ मैं ” शब्द का प्रयोग करता है । परन्तु यह एक आश्चर्य की बात है कि प्रतिदिन “ मैं ” और मेरा शब्द का अनेकानेक बार प्रयोग करने पर भी मनुष्य यथार्थ रूप में यह नहीं जानता कि " मैं कहने वाली सत्ता का स्वरूप क्या है , अर्थात् " मैं शब्द जिस वस्तु का सूचक है , वह क्या है ? आज मनुष्य ने साइंस द्वारा बड़ी - बड़ी शक्तिशाली चीजें तो बना डाली हैं , उसने संसार की अनेक पहेलियों का उत्तर भी जान लिया है और वह अन्य अनेक जटिल समस्याओं का हल ढूंढ़ निकालने में खूब लगा हुआ है , परन्तु " मैं " कहने वाला कौन है , इसके बारे में वह सत्यता को नहीं जानता अर्थात् वह स्वयं को नहीं पहचानता । आज किसी मनुष्य से पूछा जाये कि - आप कौन हैं ? अथवा आपका क्या परिचय है ? तो वह झट अपने शरीर का नाम बता देगा अथवा जो धन्धा वह करता है वह उसका नाम बता देगा । वास्तव में " मैं " शब्द शरीर से भिन्न चेतन सत्ता ' आत्मा ' का सूचक है जैसा कि चित्र में दिखाया गया है । मनुष्य ( जीवात्मा ) आत्मा और शरीर को मिला कर बनता है । जैसे शरीर पांच तत्वों ( जल , वायु अग्नि , आकाश और पृथ्वी ) से बना हुआ होता है वैसे ही आत्मा मन , बुद्धि और संस्कारमय होती है आत्मा में ही विचार करने और निर्णय करने की शक्ति होती है तथा वह जैसा कर्म करती है उसी के अनुसार उसके संस्कार बनते हैं । आत्मा एक चेतन एवं अविनाशी ज्योति बिन्दु है जो कि मानव देह में भृकुटि में निवास करती है जैसे रात्रि को आकाश में जगमगाता हुआ तारा एक बिन्दु- सा दिखाई देता है , वैसे ही दिव्य - दृष्टि द्वारा आत्मा भी एक तारे की तरह ही दिखाई देती है । इसीलिए एक प्रसिद्ध पद में कहा गया है- भृकुटि में चमकता है एक अजब तारा , गरीबां नूँ साहिबा लगदा ए प्यारा । आत्मा का वास भृकुटि में होने के कारण ही मनुष्य गहराई से सोचते समय यहीं हाथ लगाता है । जब वह यह कहता है कि मेरे तो भाग्य खोटे हैं , तब भी वह यहीं हाथ लगाता है । आत्मा का यहां वास होने के कारण ही भक्त - लोगों में यहां ही बिन्दी अथवा तिलक लगाने की प्रथा है । यहां आत्मा का सम्बन्ध मस्तिष्क से जुड़ा है और मस्तिष्क का सम्बन्ध सारे शरीर में फैले ज्ञान - तन्तुओं से हैं । आत्मा ही में पहले संकल्प उठता है और फिर मस्तिष्क तथा तंतुओं द्वारा व्यक्त होता है । आत्मा ही शान्ति अथवा दुःख का अनुभव करती तथा निर्णय करती है और उसी में संस्कार रहते हैं । अत : मन और बुद्धि आत्मा से अलग नहीं हैं । परन्तु आज आत्मा स्वयं को भूलकर देह स्त्री , पुरुष बूढ़ा जवान इत्यादि मान बैठी है । यह देह - अभिमान ही दुःख का कारण है । उपरोक्त रहस्य को मोटर के ड्राईवर के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट गया है । शरीर मोटर के समान है तथा आत्मा इसका ड्राईवर है , अर्थात् जैसे ड्राईवर मोटर का नियन्त्रण करता है , उसी प्रकार आत्मा शरीर का नियन्त्रण करती है । आत्मा के बिना शरीर निष्प्राण है , जैसे ड्राईवर के बिना मोटर । अतः परमपिता परमात्मा कहते हैं कि अपने आपको पहचानने से ही मनुष्य इस शरीर रूपी मोटर को चला सकता है और अपने लक्ष्य स्थान पर पहुंच सकता है । अन्यथा जैसे कि ड्राईवर कार चलाने निपुण न होने के कारण दुर्घटना ( Accident ) का शिकार बन जाता है और कार और उसके यात्रियों को भी चोट लगती है , इसी प्रकार जिस मनुष्य को अपनी पहचान नहीं है वह स्वयं तो दुःखी और अशान्त होता ही है साथ में अपने सम्पर्क में आने वाले मित्र - सम्बन्धियों को भी दुःखी व अशान्त बना देता अत : सच्चे सुख व सच्ची शान्ति के लिए स्वयं को जानना अति आवश्यक है ।