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गरियाबंद का धनोरा — तीन मासूमों की मौत ने जगाया कड़वा सच: अंधविश्वास, गरीबी और स्वास्थ्य व्यवस्था की त्रासदी

 चीख पुकार बिलखती माँ सुना आचल और अंधविश्वास का साया आख़िर कब तक 





गरियाबंद का धनोरा — तीन मासूमों की मौत ने जगाया कड़वा सच: अंधविश्वास, गरीबी और स्वास्थ्य व्यवस्था की त्रासदी


गरियाबंद

 धनोरा गांव का सूना आंगन आज भी तीन बच्चों की हँसी ढूंढ रहा है—8 साल की अनीता, 7 साल का ऐकराम और 4 साल का गोरश्वर। तीनों भाई-बहन अब इस दुनिया में नहीं हैं… और वजह कोई महामारी नहीं, कोई हादसा नहीं—बल्कि अंधविश्वास, झोलाछाप डॉक्टर और स्वास्थ्य सुविधा तक पहुँच की दूरी।


यह सिर्फ एक परिवार का दर्द नहीं… यह उन हजारों गांवों की सच्चाई है जिनकी जिंदगी आज भी बैगा-गुनिया और झाड़-फूंक के भरोसे चलती है। जहां अस्पताल की दूरी मौत के बराबर है, और गरीबी इलाज से बड़ी बीमारी बन जाती है।


त्रासदी कैसे शुरू हुई — गलत भरोसे की कीमत तीन जानें


मैनपुर ब्लॉक के धनोरा गांव के डमरुधर नागेश अपने तीनों बच्चों को लेकर काम करने ससुराल गए थे। वहीं बच्चों को तेज बुखार चढ़ा। इलाज के नाम पर सबसे पहले उन्हें दिखाया गया एक झोलाछाप, जिसने गलत दवा दी। हालत बिगड़ी तो परिवार गांव लौट आया—जहाँ दो रास्ते थे:

1. सरकारी अस्पताल

2. झाड़-फूंक करने वाला बैगा


और जैसा अक्सर होता है… चुन लिया गया दूसरा रास्ता।




तीन दिन… तीन मौतें… पूरा गांव शोक में डूबा


11 नवंबर — पहली मौत

8 वर्षीय अनीता की हालत गंभीर थी

फिर भी परिजन बैगा का ही चक्कर लगाते रहे

जब अस्पताल ले चले, वह रास्ते में ही दम तोड़ चुकी थी


13 नवंबर सुबह — दूसरी मौत

7 वर्षीय ऐकराम को देवभोग ले जाया गया

एम्बुलेंस देर से पहुँची

अस्पताल पहुँचने से पहले उसकी भी सांसें थम गईं


13 नवंबर शाम — तीसरी मौत

4 साल का गोरश्वर

झाड़-फूंक के दौरान ही मौत

एक ही दिन दो अर्थियाँ उठीं, घर से रोने की आवाजें आज भी कई दिलों को हिला देती हैं


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मितानिन की गवाही — “हमने कहा था, अस्पताल ले आओ”


गांव की मितानिन  ने बताया:

बच्चों को कई बार अस्पताल ले जाने कहा

परिजन हर बार झाड़-फूंक में समय गंवाते रहे

तीसरे दिन तक हालत इतनी नाजुक हो चुकी थी कि डॉक्टर भी असहाय थे


डॉक्टर का दर्द — “हम बुलाते रहे, पर वो नहीं आए”


अमलीपदर के डॉक्टर बताते हैं:

सीएमओ ने परिजनों को अवश्य बुलाया था

लेकिन वे समय पर अस्पताल नहीं पहुंचे

जब एम्बुलेंस चल पड़ी, बच्चे बेहोशी की कगार पर थे


यह व्यवस्था की नाकामी भी है और जागरूकता की कमी भी।


गांव की विडंबना — जहां अंधविश्वास मजबूरी बन जाता है


ग्रामीणों ने जो सच बताया, वह और भी पीड़ादायक है—

अस्पताल कई किलोमीटर दूर

रास्ते खराब

एम्बुलेंस समय पर नहीं आती

रात में डॉक्टर मिलना मुश्किल

गरीबी में इलाज “खर्च” जैसा लगता है

इसलिए बैगा-गुनिया पहला और आसान विकल्प बन जाता है


यही कारण है कि बुखार भी झाड़-फूंक का रोग समझ लिया जाता है।


अंधविश्वास या मजबूरी? — असली केस फाइल कुछ और कहती है


यह घटना सिर्फ अंधविश्वास की कहानी नहीं है।

यह गरीबी, अज्ञान, सरकारी लापरवाही और स्वास्थ्य व्यवस्था की पहुंच न होने का गंदा मिश्रण है।


परिजन आज पछता रहे होंगे…

पर पछतावे से तीन कब्रें नहीं भरतीं।


सरकारी जांच शुरू — पर क्या इससे कुछ बदलेगा?


सीएमएचओ डॉ. एस.के. नवरत्न ने जांच के आदेश दिए हैं।

स्वास्थ्य विभाग की टीम गांव में जांच कर रही है।


लेकिन सवाल बड़ा है—

क्या जांच रिपोर्ट इन बच्चों को वापस ला देगी?

क्या गांव में स्वास्थ्य सेवा सुधर जाएगी?

क्या झोलाछाप डॉक्टरों पर कार्रवाई होगी?

क्या ग्रामीणों का अंधविश्वास टूटेगा?


या… एक बार फिर फाइल बंद होकर रैक में रख दी जाएगी?


यह घटना चेतावनी भी है और सवाल भी


ये तीन मासूम मौतें हमें झकझोरती हैं —


👉 क्या हम 2025 में भी झाड़-फूंक से बच्चों का इलाज करेंगे?

👉 क्या एक एम्बुलेंस की देरी तीन जानें ले सकती है?

👉 क्या झोलाछाप डॉक्टरों पर कार्रवाई केवल कागजों में ही होती रहेगी?

👉 क्या स्वास्थ्य सेवाएं शहर तक सीमित रहती रहेंगी?


क्या जरूरी है? — समाधान और कड़ी चेतावनी


इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए ज़रूरी है:


✔ ग्रामीण क्षेत्रों में मजबूत स्वास्थ्य सेवाएं

✔ एम्बुलेंस की उपलब्धता व समय पर पहुंच

✔ झोलाछाप डॉक्टरों पर सख्त कार्रवाई

✔ अंधविश्वास के खिलाफ जागरूकता

✔ मितानिन व स्वास्थ्य कर्मचारियों को ग्रामीणों का सहयोग


और सबसे ज्यादा—

समय पर अस्पताल पहुँचने की आदत।


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महत्वपूर्ण तथ्य (सार)

3 दिन में 3 भाई-बहन की मौत

झोलाछाप डॉक्टर + झाड़-फूंक + अस्पताल जाने में देरी

11 नवंबर: पहली मौत

13 नवंबर: दो मौतें

एम्बुलेंस देर से पहुँची

डॉक्टरों ने कहा—परिजन समय पर नहीं लाए

स्वास्थ्य विभाग ने जांच शुरू की

अंधविश्वास + गरीबी + स्वास्थ्य व्यवस्था की दूरी = त्रासदी

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