*शांति की अवतार, प्रेम की मूर्ति थी मम्मा - बीके स्वाति*
*शांति की अवतार, प्रेम की मूर्ति थी मम्मा - बीके स्वाति*
बिलासपुर
भारत में माताओं की सदा ही महिमा की जाती रही है। यहां तक कि भारत भूमि को भी भारत माता कहा जाता है। वास्तव में सारी महिमा भारत की उन माताओं की है जिन्होंने अपनी त्याग, तपस्या द्वारा विश्वकल्याण में अपना योगदान दिया। ऐसी ही त्याग तपस्या की मूर्ति यज्ञ माता जगदंबा सरस्वती थी।
उक्त बातें प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की मुख्य शाखा टेलीफोन एक्सचेंज रोड स्थित राजयोग भवन में आयोजित जगदंबा सरस्वती के 58वें पुण्य स्मृति दिवस पर सेवाकेंद्र संचालिका बीके स्वाति दीदी ने कहा। दीदी ने बताया कि 24 जून को संस्था की प्रथम मुख्य प्रसाशिका जगदंबा सरस्वती जी के पुण्य स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनके नि:स्वार्थ स्नेहमई पालना के कारण हम सभी उन्हें प्यार से मम्मा कहते हैं। उन्होंने मम्मा के जीवन के बारे में बताया कि सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली जगत जननी आदि माता जगदंबा सरस्वती प्रजापिता ब्रह्मा बाबा की मुख्य संतान विश्व की पालनहार ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की प्रथम मुख्य प्रसाशिका का लौकिक नाम राधे था। आज से 86 वर्ष पूर्व सन् 1937 में जब विद्यालय की विधिवत स्थापना हुई। उस समय ब्रह्मा बाबा ने कन्या-माताओं की ट्रस्ट बनाकर उसे चलाने और आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी ओम राधे को मिली। उन्होंने पूरे संगठन को एकता के सूत्र में बांधे हुए आने वाली सभी परिस्थितियों का निर्माता से सामना किया। कुमारी होते हुए भी आप जगत मां के रूप में सब की पालना, मार्गदर्शन करते हुए परमात्मा पिता की हर आज्ञा का पालना किया। हर ईश्वरी नियम मर्यादा का स्वयं दृढ़ता से पालन करते हुए सबको मर्यादाओं में चलने की प्रेरणा और शक्ति प्रदान की। मम्मा के शीतल स्वभाव और मीठे बोल ने अनेक आत्माओं को अध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। मम्मा का सदा यही लक्ष्य रहा कि सब के दुख दूर करूं, किसी भी हालत में किसी भी बात में कभी उन्हें क्रोध तो क्या परंतु आवेश में भी नहीं देखा। उन्होंने कभी तेज आवाज से बात नहीं की। वे शांति की अवतार प्रेम की मूर्ति थी। मातेश्वरी जगदंबा सरस्वती अनेकानेक विशेषताओं की छाप सब पर डालते अपनी सेवाएं देते हुए अपने यादगार कायम करते हुए 24 जून 1965 में इस भौतिक शरीर का त्याग कर दिया।
दीदी ने बताया कि मातेश्वरी जगदंबा सरस्वती कहती थी हमें अपने बोलचाल पर बहुत ध्यान देना है। कई बार हम कहते हैं हमारा भाव यह नहीं था परंतु हर एक के साथ कैसे बात करनी है वह सीखना है। कोई कैसा भी हो कभी यह नहीं कहना चाहिए कि यह तो ऐसा है, यह सुधरेगा नहीं...। उनको हमें अपने शुभ संकल्पो से सुधारना है। हमारी जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। जो शिक्षाएं हम दूसरों को देते हैं वह सब हमारे में भी होनी चाहिए। हमारे अंदर ऐसी कोई आदत या चाल-चलन न हो जिसे देख कर कोई महसूस करे कि यह ठीक नहीं है। अपने को कभी छोटा नहीं समझना है। यह भी कमजोरी है। ना कभी अभिमान में आना है, ना कभी अपने अंदर कोई हीन भावना लेकर आनी है। मातेश्वरी जी कहती थी कि अपनी जीवन पर पूरी परहेज रखो। मम्मा हमेशा कहती थी कि सदा सबको मनसा-वाचा-कर्मणा सुख दो। पांच तत्वों को भी दुख नहीं देना। अगर कोई जोर-जोर से चप्पल से आवाज करते हुए चलता था तो मम्मा कहती थी कि धीमे-धीमे चला करो। धरती को भी कष्ट नहीं होना चाहिए। तत्वों को भी तुम सुख दो ताकि यह तत्व भी तुम्हें सुख दें।
इससे पहले राजयोग भवन में आज सुबह से ही योग साधना का कार्यक्रम चलता रहा। मम्मा को 56 भोग स्वीकार कराया गया। सभी के द्वारा मम्मा की विशेषताओं को स्मृति में रख उनके पद चिन्हों पर चलने के संकल्प के साथ पुष्पांजलि अर्पित की गई। पूरे दिन भर में 500 से भी अधिक साधको ने प्रसाद ग्रहण किया।