मानव जीवन में अग्नि का अभूतपूर्व स्थान है( दीपं ज्योति नमोस्तुते )-नीरज जायसवाल,उपकमांडेंट,केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल
मानव जीवन में अग्नि का अभूतपूर्व स्थान है( दीपं ज्योति नमोस्तुते )-नीरज जायसवाल,उपकमांडेंट,केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल
मानव जीवन में अग्नि का अभूतपूर्व स्थान है। अग्नि की उत्पत्ति पुरापाषण काल में मानी जाती है। लगभग 25-20 लाख साल पूर्व मानव ने पत्थरों को रगड़कर अग्नि की उत्पत्ति की। तब ही से लेकर आज तक हम आग का प्रयोग करते आ रहे हैं। भारत में यह अग्नि देवता के रूप में पूजे जाते रहे हैं। वैदिक काल में अग्नि सबसे ऊँचे देव माने गये है। अग्निपुराण नामक एक ग्रंथ भी है। हिंदू धर्म में यज्ञ, हवन और विवाह में अग्नि का आह्वान करके अग्नि की पूजा की जाती है। मनुष्य का सारा काम ही अग्नि पर निर्भर होने से इसका स्थान हमेशा ऊँचा रहा है। अग्निदेव यज्ञ के प्रधान अंग है। ये जग को प्रकाशित करते हैं। मान्यता है कि सभी रत्न अग्नि से उत्पन्न हुए। ऋग्वेद में अग्नि पर बहुत सारी ऋचाएँ है। ऐतरेय ब्राह्मण में भी कहा गया है कि देवताओं में प्रथम स्थान अग्नि का है। अग्नि ईश्वर और मानव जाति के बीच मध्यस्थता का कार्य करते हैं।
आदिम जनजाति द्वारा अग्नि के खोज पश्चात् उसके संग्रहण पर क्रमिक विकास होता रहा। प्रारंभ में लोगो ने अग्नि को किसी ठोस वस्तु पर जलाना शुरू किया ताकि एक स्थान से दुसरे स्थान तक ले जाया जा सके। इसी विकास में दीपक की खोज हुई होगी। 70,000 ईसा पूर्व प्राचीन लोग खोखली चट्टानों, सिपियों और अन्य प्राकृतिक वस्तुओं को काई से भरकर जानवरों की चर्बी में भिगाकर आग लगाते थे। 4500 ईसा पूर्व पहला तेल-लैंप की जानकारी प्राप्त हुई है। 900 ईसा पूर्व में एक पर्शियन विद्वान ने केरेासिन लैंप का आविष्कार किया। 1807 ई0 में वैज्ञानिकों ने प्रकाशयुक्त लैंप का आविष्कार किया। 1879 ई0 में थॉमस एडिसन ने कार्बन धागा के विद्युत बल्ब का आविष्कार किया। इसी प्रकार 1962 में निक होलोनायक ने एल0ई0डी0 विकसित किया।
18वीं शताब्दी में मोमबत्ती आने से पहले रश लाईट का प्रयोग किया जाता था जिसमें नरकट के कण को सुखाया जाता और रसोई घर के शेष अवशेषों से इसको संतृप्त किया जाता था। फिर एक कंटेनर में रखकर जलाया जाता था। इसमें धुआँ ज्यादा निकलता था और 15-20 मिनट जलता था जिससे रोशनी होती थी। 19वीं शताब्दी तक मोमबत्ती कृत्रिम प्रकाश का सबसे बड़ा स्त्रोत था। मोमबत्ती का पहली बार उल्लेख 10वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था। ये शुरूआती मोमबत्तियाँ ज्वलनशील पदार्थो से भरे कंटेनर में चिपकी हुई बत्तियों से बनी होती थी। शुरूआत में रोमनों ने हेलो नामक पशु वसा से मोमबत्ती बनाई जो सस्ता और आसानी से उपलब्ध था। 1500 के दशक में मोम का प्रयोग होने लगा। मोम की बत्तियाँ कम धुँओं के साथ अधिक रोशनी देती है और लंबे समय तक जलती है। 1400 के दशक तक सभी मोमबत्तियाँ डुबाकर बनाई जाती थी। एक फ्रांसिसी आविष्कारक ने मोमबत्ती बनाने के लिए साँचे बनाये। 1830 ई0 में मोम के रूप में पैराफिन वैक्स का प्रयोग किया जाने लगा।
इसी प्रकार लालटेन का प्रयोग प्राचीन काल से ही किया जा रहा है। जब काँच का आविष्कार नहीं हुआ था तबतक जानवरों के सिंग को पतला और चपटा करके पारभासी बनाकर खिड़की के तरह प्रयोग किया जाता था। 1500 के दशक में पूरे विश्व के विकसित देशों में लालटेन सार्वजनिक स्थान पर लगाये जाने लगे। फ्रांस में लुईस 14 के शासनकाल के दौरान 1667 ई0 में पेरिस के सड़को पर हजारो लालटेन लगाई गई। 18वीं शताब्दी तक लालटेन का प्रयोग रात में गश्त करने के लिए चौकीदार किया करते थे। 19वीं सदी में रेलवे ने लालटेन का प्रयोग और विकास किया। लालटेन में क्रमिक विकास होता रहा। पीतल, जस्ता, टिन और काँच से बने लैंप तथा मिट्टी के तेल, तारपीन, कोयला तेल इत्यादि का प्रयोग होता रहा। बाती और बर्नर में समय के साथ परिवर्तन होता रहा। माचिस के आने से पहले स्पिल से मोमबत्ती या लालटेन जलाई जाती थी। यह कागज का एक मुड़ा हुआ टुकड़ा होता था जो लंबा और पतला होता था। मैंटल लालटेन के विकसित होने पर रोशनी में एक क्रांति आई। मैंटल जलता नहीं था पर गरम होकर चमकीला हो जाता था जिससे काफी रोशनी होती थी।
मशाल ,मोमबत्ती और लालटेन से पहले दीपक का बहुत महत्व है। आज हम दीपों का पर्व दीपावली मना रहें है। भारतीय संस्कृति में दीपावली एक महत्वपूर्ण पर्व है। प्रभु श्री राम के अयोध्या आगमन के स्वागत में यह पर्व मनाया जाता रहा है। यह दीपोत्सव है जिसमें दीप जलाये जाते हैं। भारतीय संस्कृति में दीपों का इतिहास अंति प्राचीन है। पुरात्तत्विदो को सिंधु-घाटी सभ्यता से आगे हर सभ्यताओं व विभिन्न राजवंशो के खुदाई में विभिन्न प्रकार के दिये प्राप्त हुए है। रोशनी को संग्रहण में दीपक का बहुत महत्व है। पाषाणकाल में दीपक पत्थर के थे पर विकास के साथ-साथ मिट्टी के दीपक बनने लगे। मोहनजोदड़ो की खुदाई में 5000 हजार ई0पू0 के दीपक मिले हैं। ये दीपक पके हुए थे। घरो में दिये रखने के लिए ताक बना होता था। महाभारत के द्रोणापर्व में दीपों का सुंदर वर्णन मिलता है। कल्हण की राजतरंगिणी में मणिदीप का वर्णन है। कालिदास ने ’मेघदूत’ में भी मणिदीप का वर्णन किया है। दक्षिण भारत में दीपदान की सोलह विधियो का वर्णन है। भारत में विभिन्न संप्रदायो के लोग अलग-अलग दीपो का प्रयोग करते हैं जैसे हठयोगी का सीप दीप, शैव मतावम्बलियों का नाग व कीर्तिमुख दीप। वैष्णवी शंख, चक्र, पद्य वरूण आकृतियो के दीप जलाते हैं। गाणपत्य दीपो में गणपति, हाथी, मूणक, सर्प, शिवलिंग और रिद्धि-सिद्धि की आकृतियाँ बनाई जाती है। सौरदीप में सूर्य की आकृति और शक्तिदीप में कालभैरव की आकृति बनाई जाती है।
दीपक या दिया पारंपरिक रूप से मिट्ठी का ही होता है लेकिन आज कल धातु के भी दिये प्रचलन में है। प्रारंभिक रूप से इसका प्रयोग प्रकाश के लिए किया जाता था। उसके पश्चात् धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठानों में किया जाने लगा जो आज भी जारी है। दीपक जलाने का मंत्र है -
शुभम करोति कल्याणम् आरोग्यम् धन संपदा।
शत्रुबुद्धि विनाशाय दीपं ज्योति नमेस्तुते ।।
इसका अर्थ है सुन्दर और कल्याणकारी आरोग्य और संपदा को देने वाले हे दीप, शत्रु के बुद्धि का विनाश और हमारी बुद्धि के विकास के लिए हम तुम्हें नमस्कार करते हैं।
वृहद आरण्यक उपनिषद में अंधकार से ज्योति की ओर जाने की कामना की गई हैः-
असतो मा स˜मय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।
आज हम जो दिये जला रहें है वो अनादिकाल से वैसा ही चला आ रहा है। मिट्टी के पके हुए दिये, रूई की बाती और दृव्य में घी या तेल। राजप्रसादों में अलंकृत दिये जलाये जाते थे। दीपस्तंभ भी प्रचलन में आया। सामान्य दीप के अलावा नैमित्तिक दीप का प्रयोग होना शुरू हुआ जैसे-निरंतर जलने वाले नन्दादीप, निरंजन दीप, दीपमालिका, आरती दीप, रति दीप। विभिन्न विभिन्न आकार में दीप ढाले गये, जैसे सुराही के तरह, तोते और मोर के तरह, सिंह और हाथी के तरह, वृक्ष दीप इत्यादि । मिट्टी का दिया पंच तत्व का प्रतीक है। दिया को बनाने के लिए मिट्टी का प्रयोग किया जाता हैं जो भूमि तत्व का प्रतीक हैं। मिट्टी को पानी में गलाया जाता है जो जल तत्व का प्रतीक है। फिर इसे धूप और हवा में सुखाया जाता है जो आकाश तत्व और वायु तत्व के प्रतीक है। तत्पश्चात् आग में तपाया जाता है जो अग्नि तत्व के प्रतीक है।
प्राचीन काल में सभी की दिनचर्या सूर्य की रोशनी पर आधारित थी। लोग सामान्यतः सूर्योदय से पहले उठते थे और सूर्यास्त के पश्चात् सो जाते थे। सभी की कोशिश रहती थी कि अधिकतम कार्य सूर्यास्त से पहले कर ली जाये। उस काल में घर को रौशन करना विलासिता का प्रतीक था। सम्पन्न लोग मशाल और दीपको के माध्यम से रोशनी करते थे। सामान्य जन दिन में काम करके जल्दी सो जाते थे। चांदनी रात में चंद्रमा का भी सहारा था। शाम में सूर्यास्त के बाद पूजा के लिए दीपक जलाये जाते थे। समृद्ध घर में स्टैंड वाले दीपक हुआ करते थे जिससे घर में अधिक रोशनी होती थी। समान्यतः घी के दिये जलाये जाते थे पर अरंडी का तेल भी जलाया जाता था क्योंकि इसके गाढ़ापन के कारण दीपक अधिक देर तक जलता था। मिट्टी के तेल से ड़िबरी और लालटेन का प्रयोग रोशनी के लिए किया जाता था।
दीपक, प्रकाश, ज्ञान व जीवन का प्रतीक है जों अनवरत हमें प्रकाशित करते रहता हैं। इस दीपावली पर भी हम प्रण करें कि हम मिट्टी के दीपक जलाकर घर को रंौशन करें और वैदिक काल से चली आ रही परंपरा का निर्वहन करें।