आज का चिंतन(सुविचार)
🍃🏵🍃🏵🍃🏵🍃🏵🍃
💠 *Aaj_Ka_Vichar*💠
🎋 *..22-03-2021*..🎋
✍🏻✍🏻याद रहे ये संसार एक नाटक शाला है, हमे अपने लिए खुद ही कर्म का बिज बोना है, कोई भी हमारे लिए कर्म नहीं कर सकता।
💐 *Brahma Kumaris* 💐
🌷 *σм ѕнαитι*🌷
🍃🏵🍃🏵🍃🏵🍃🏵🍃
♻🍁♻🍁♻🍁♻🍁♻
💥 *विचार परिवर्तन*💥
✍🏻✍🏻अगर जीवन में ऊंचा उठना चाहते हो तो अपने संकल्पों को ऊंचा बनाओ, शुद्ध व सात्विक संकल्प ही श्रेष्ठ हैं। ऐसे संकल्प आत्मा में जान भर देते हैं, जिससे वह आत्मा जीवन में वो सब कर सकती है, जो वह करना चाहती है।
🌹 *σм ѕнαитι.*🌹
♻🍁♻🍁♻🍁♻🍁♻
🌹मन को जीतने की युक्ति - स्वरूप का परिचय🌹
जब किसी मनुष्य को यह मालूम हो जाता है कि वह वास्तव में अमुक पिता की संतान है, अमुक देश का निवासी है, अमुक धर्म वाला है और कि वर्तमान समय वह अपने को जिस पिता की संतान समझता है, जिस देश का निवासी मानता है, जिस धर्म से अपना संबंध जोड़ता है, वह उसकी भूल है तो मनुष्य अपने जीवन के वर्तमान तरीके को त्याग कर, कुमार्ग को छोड़कर अपने वास्तविक स्वरुप में आने लगता है।
मनुष्य का कोई बच्चा, भेड़ियों द्वारा उठाया जाने पर और उनकी संगत में रहने पर उनके समान बन ही जाता है क्योंकि उसे अपने स्वरुप, स्वधर्म, स्वदेश, स्वमान इत्यादि का परिचय ही नहीं होता। परंतु जब उसे यह निश्चयात्मक ज्ञान करा दिया जाए कि वह भेड़िया नहीं वरन मनुष्य है और कि उसके कर्तव्य भेड़ियों जैसे नहीं बल्कि मनुष्यों के कर्तव्यों जैसे होने चाहिए तो उसकी बोलचाल, खाने-पीने में रात-दिन का अंतर पड़ जाता है। इसी प्रकार जब मनुष्यात्मा निश्चयात्मक रीति से जान जाती है कि वह देह नहीं, आत्मा है, देह के पिता की संतान नहीं वरन् आत्मा के अविनाशी पिता परमात्मा की संतान है, परमात्मा की संतान होने के नाते उसका स्वधर्म तो पवित्रता और शांति है, उसकी आदिम अवस्था तो कर्मातीत है और उसका निजी-अविनाशी देश परलोक है तो उसका मन कोई ऐसा संकल्प नहीं करता जो अपवित्र हो, अशांति उत्पन्न करने वाला हो, कर्मबंधन में लाने वाला हो, ईश्वरीय लक्षणों के विपरीत हो। अर्थात् उस मनुष्य का मन अच्छे मार्ग पर लग जाता है और वशीभूत हो जाता है, वह अपने स्वरुप की तथा पिता परमात्मा की याद में लग जाता है। तब उसकी ख़ुशी अथाह हो जाती है क्योंकि वह असत्य निश्चय को छोड़कर सत्य निश्चय में स्थित होता है। जब उसकी बुद्धि में सत्य का निश्चयात्मक ज्ञान-बल आ जाता है तो वह मन को असत्य से मोड़ती है। पहले जो असत्य निश्चय होने के कारण उसका मन प्रकृति के विषय और विकारों में भागता था अब वहां से हटकर अपने आदि स्वरुप में स्थित हो जाता है क्योंकि उस जैसी मस्ती और उस जैसा स्थाई सुख और किसी तरीके से नहीं हो सकता। मनुष्य का स्वधर्म तो है ही शांति और पवित्रता। अतएव इसकी पहचान रहने पर उससे कोई अपवित्र और अशांतिकारी कर्म हो ही नहीं सकता।
*- जगदीश भाईजी (ज्ञान प्रवाह)*
🇲🇰🇲🇰🇲🇰🇲🇰🇲🇰🇲🇰🇲🇰🇲🇰🇲🇰🇲🇰